जयपुर: जिस माटी से शौर्य की गाथाएं लिखी जाती रही हैं, उसी माटी की बेटियों ने राजस्थान से लगभग समाप्त हो चुके फुटबॉल जैसे खेल में इस प्रदेश को फिर सिरमौर बना दिया है. संघर्ष से सोना बनीं बेटियों को इस मुकाम तक पहुंचाने में प्रदेश के फुटबॉल आइकॉन मगन सिंह के बेटे विक्रम सिंह ने तो अपनी सरकारी नौकरी तक को न्यौछावर कर दिया. राजस्थान का इतिहास वीरांगनाओ के जौहर का रहा है, लेकिन इस भूमि की बेटियां सिर्फ "जौहर" ही नहीं करती, बल्कि खेल के मैदान पर भी "जौहर" दिखाती है. आईये आपको दिखाते हैं शौर्य की ऐसी दास्ता जो जंग के मैदान में नहीं बल्कि खेल के मैदान में लिखी गई.
महशर बदायुनी ने लिखा है -
अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
आज पूरा देश खेल दिवस मना रहा है और धोरों की धरती की बात करें, तो भले ही परिस्थितियां प्रतिकूल है, लेकिन यहां के खिलाड़ियों ने ओलंपिक तक अपने झंडे गाड़े हैं, लेकिन आज हम खेल दिवस के मौके पर रुबरु कराते हैं, उन बेटियों से जिन्होंने अपने दम पर राजस्थान को 60 साल बाद अंडर-17 नेशनल फुटबॉल चैंपियनशिप में सिरमौर बनाया है. ऐसा प्रदेश जहां फुटबॉल की ज्यादा सुविधाएं नहीं है, बतौर प्रोफेशनल विश्वस्तरीय कोच नहीं है, लेकिन जब जूनुन जब जीत का हो, तो पूरी कायनात आपका साथ देने लगती है. जी हां इन बेटियों ने वह कर दिखाया, जिसका सपना भी शायद राजस्थान ने नहीं देखा होगा, लेकिन जब परिणाम सामने आया, तो हर कोई इनको गूगल से तलाशने लगा.
तो यह कहानी है राजस्थान के बीकानेर जिले की नोखा तहसील के ढिंगसरी गांव की . यहां की 12 बेटियां राजस्थान की फुटबॉल टीम में आई. इन बेटियों ने कर्नाटक के बेलगांव में हुई अंडर-17 नेशनल फुटबॉल चैंपियनशिप में राजस्थान को चैंपियन बना दिया. इन बेटियों में किसी के पिता मजदूर हैं तो किसी के पिता बकरियां चराते हैं. कुछ खिलाड़ी के पेरेंट्स खेती-किसानी करते हैं. बेहद ही साधारण परिवार से आने वाली इन बेटियों के लिए इतिहास रचना आसान नहीं था. सफलता की इस कहानी में संघर्ष, विरोध और मेहनत के कई रंग हैं. टीम में शामिल सभी 12 खिलाड़ियों के पीछे भी संघर्ष की कहानी है. सभी बेहद साधारण परिवारों से हैं. घर के कामकाज और पढ़ाई के बीच उन्होंने जी तोड़ मेहनत कर यह मुकाम हासिल किया.
टीम की कप्तान संजू कंवर राजवी की मां का निधन हो चुका है. पिता मनोहर सिंह बेरोजगार हैं. थोड़ी खेती-बाड़ी करते हैं. संजू कंवर को बड़े पिता (ताऊ) उत्तम सिंह ने पाला-पोसा है. गांव वालों ने बताया कि वे बकरियां चराते हैं. नेशनल चैंपियनशिप के पूरे टूर्नामेंट में संजू कंवर ने कुल आठ गोल दागे. फाइनल में भी दो गोल दागे और बेस्ट प्लयेर रही. टीम की प्लेयर भावना कंवर के पिता रघुवीरसिंह खेती करते हैं. वे बताते हैं- आज जो भी जीत मिली है, उसके लिए कोच साहब को ही धन्यवाद है. टीम की उप कप्तान हंसा कंवर के पिता अशोक सिंह का एक साल पहले निधन हो चुका है. परिवार की आय खेती-बाड़ी पर ही निर्भर है. गोलकीपर मुन्नी भांभू के पिता भोमाराम भांभू व्यापार करते हैं. प्लेयर मंजू कंवर के पिता बकरियां चराते हैं. इसी प्रकार टीम की बाकी खिलाड़ी भी साधारण परिवारों से हैं.
इन बेटियों को खिलाड़ी बनाने की कहानी भी काफी दिलचस्प है और इसका श्रेय जाता है टीम के कोच विक्रम सिंह को. भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कप्तान, अर्जुन अवार्डी एवं राजस्थान फुटबॉल के ब्रांड एम्बेसडर मगनसिंह राजवी के पुत्र और भारतीय रेलवे के कर्मचारी विक्रम सिंह राजवी ने अपने पिता और खुद के फुटबॉल के जुनून के चलते गांव में अपने पिता के नाम से एक अकादमी शुरू की. गांव में एक-एक घर जाकर उन्होंने गांव वालों से फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित किया. आज करीब 6 साल बाद उनके संघर्ष को एक मुकाम मिला है. पहले इस गांव के लोग फुटबॉल खेलने के लिए बच्चों को भेजने के लिए तैयार नहीं हुई, लेकिन धीरे-धीरे उनका संघर्ष काम आया और आज गांव के साधारण मजदूर, चरवाहे और श्रमिक की बेटियां अकादमी में ट्रेनिंग ले रहीं हैं. चैंपियन टीम की खिलाड़ी भी इन्हीं परिवारों से है, जिनमें किसी के पिता मजदूर हैं तो किसी खिलाड़ी के पिता गांव में ही बकरी चराने का काम करते हैं. सफलता की जो तस्वीर आज आपको दिख रही है, उसके पीछे बड़ा संघर्ष है.
विक्रम सिंह के पिता मगनसिंह राजवी भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान रहे हैं. उनके कप्तान रहते हुए भारतीय टीम ने 10 से ज्यादा इंटरनेशनल टूर्नामेंट खेले और छठे एशियन गेम्स में ब्रॉन्ज मेडल जीता था. मगन सिंह अब करीब 82 साल के हो गए हैं और बीकानेर में रहते हैं. उनका हमेशा से सपना रहा कि गांव के बच्चे फुटबॉलर बनें. उनका यही सपना पूरा करने विक्रम सिंह 2021 में गांव आ गए. आज से पांच-छह साल पहले तो उन्हें यहां खिलाड़ी भी नहीं मिले थे. खेलने के लिए उन्होंने लड़कियों को लड़कों वाली ड्रेस दी तो गांव वाले विरोध में उतर आए. फिर उन्होंने सबकी सोच बदली और आज पूरा गांव बेटियों पर गर्व कर रहा है. 250 घरों के गांव में करीब 200 फुटबॉल प्लेयर बन चुके हैं. विक्रम ने गांव में 18 बीघा जमीन खरीदकर अपने पिता मगन सिंह राजवी के नाम पर एकेडमी शुरू की. कुछ दिनों तक उनको एक भी प्लेयर नहीं मिला.
इसके बाद उन्होंने गांव में बकरियां चराने वाले बच्चों को फुटबॉल सिखाने का फैसला किया. गांव से वे बाइक पर कुछ बच्चों को लेकर मैदान पर लाते, उन्हें फुटबॉल की प्रैक्टिस करवाते. आधे बच्चे तो दूसरे दिन आते ही नहीं थे, जबकि सभी को फुटबॉल फ्री में सिखा रहे थे. फिर धीरे-धीरे बच्चों का इंटरेस्ट बढ़ा तो वे आने लगे. अब कुछ लड़कियां भी फुटबॉल खेलने आने लगीं. शुरुआत में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. लड़कियों को सूट-सलवार में फुटबॉल खेलने में परेशानी होती थी. उनके लिए प्लेयर्स की ड्रेस खरीदी. ग्रामीणों ने लड़कियों के शॉट्र्स पहनने पर रोक लगा दी. कोच ने फिर खुद एक-एक घर जाकर परिवार वालों को समझाना पड़ा.
इसके बाद परिवार वाले माने. वे बेटियों को फुटबॉल सीखने के लिए भेजने लगे. इन बेटियों ने भी जी तोड़ मेहनत की. गांव वालों ने जो भरोसा किया, उसका नतीजा है कि आज गांव का नाम देश् में रोशन हो गया. चैंपियन बनकर जब खिलाड़ी व कोच गांव लौटे, तो उनका हीरो जैसा स्वागत हुआ. आज तो हर कोई अब ढिंगसरी गांव की तरफ दौड़ रहा है इन बेटियों का स्वागत करने. बेटियों की मेहनत का ही नतीजा है कि अब यहां पर जन सहयोग से भी खेल सुविधाएं विकसित हो रही है.