जयपुरः आज विश्व दिव्यांग दिवस है. इस मौके पर हम उन दिव्यांग खिलाड़ियों को सलाम करते हैं, जो अपनी शारीरिक चुनौतियों को पार करके खेलों में असाधारण प्रदर्शन कर रहे हैं. ये खिलाड़ी न केवल अपने खेल कौशल से दुनिया को हैरान करते हैं, बल्कि जीवन की असली जंग को भी जीतने का संदेश देते हैं. उनके संघर्ष और समर्पण को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि दिव्यांगता किसी भी इंसान की क्षमता को परिभाषित नहीं करती. खेलों के मैदान में इन खिलाड़ियों की महक जरा अलग ही होती है.
कभी लड़खड़ाओगे तो खुद ही संभल भी जाओगे
जब तुम थामोगे हौसलों का दामन तो,
एक दिन शिखर पर भी चढ़ ही जाओगे
मुश्किल आएंगी पग पग पर सामने तुम्हारे
लेकिन दुनिया में तुम अपना परचम लहराओगे
मन में ठान लिया जाए, तो कोई भी असंभव नहींः
जहां एक ओर लोग उम्मीदें छोड़ देते हैं, वहीं दिव्यांग कहलाने वाले असाधारण खिलाड़ी अपनी मेहनत और आत्मविश्वास से असंभव को संभव बना देते हैं. चाहे वह पैरा-ओलंपिक हो, या कोई अन्य खेल प्रतियोगिता, हर जीत और हर कदम में एक नई प्रेरणा छिपी होती है. दिव्यांग खिलाड़ी समाज को यह दिखाते हैं कि कठिनाइयाँ केवल एक चुनौती हैं, और हर व्यक्ति के अंदर अपनी क्षमता को पहचानने की ताकत होती है. इन खिलाड़ियों की यात्रा हमें सिखाती है कि अगर मन में ठान लिया जाए, तो कोई भी असंभव नहीं है.
दिव्यांगता केवल शारीरिक या मानसिक स्थिति नहीं, बल्कि एक अनोखा अनुभव है, जो इंसान को संघर्ष, साहस और उम्मीद का रास्ता दिखाता है. जो लोग दिव्यांग होते हैं, वे दुनिया को अपनी नजर से देखते हैं और हर चुनौती को अपनी ताकत बनाते हैं. उनका हर कदम प्रेरणा है, जो यह सिखाता है कि जीवन में अगर दृढ़ इच्छाशक्ति हो, तो कोई भी बाधा बड़ी नहीं होती. आज आपको ऐसे ही दिव्यांग खिलाड़ियों से रुबरु कराते हैं, जिन्होंने चुनौतियों को हौसलों के तले कुचलकर सफलता का परचम लहराया है.
मैदान पर दौड़ते हैं, तो दर्शक दांतो तले दबा लेते है उंगलीः
ये हैं पाली जिले के एक छोटे से गांव के जसवंत सिंह. जन्म से ही इनका बायां पैर इस हालात में है. बायां हाथ भी ठीक से काम नहीं करता, लेकिन खेल भी अपनाया तो सबसे कठिन - क्रिकेट . जिसमें शॉट मारने के लिए मजबूत हाथ चाहिए, तो दौड़ने के लिए चपलता. सहारा मिला है, तो बैसाखी का. जब मैदान पर दौड़ते हैं, तो दर्शक दांतो तले उंगली दबा लेते हैं, जब गेंद को सीमा रेखा के बाहर भेजते हैं, तो तालियां रुकती ही नहीं. 11 साल की उम्र में 2003 में टेनिस बॉल से क्रिकेट खेलना शुरू किया था, आज राजस्थान डिसएबल क्रिकेट टीम के कप्तान है. 2013 में पहली बार उनका राजस्थान टीम में चयन हुआ था, उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा. अफगानिस्तान के खिलाफ सीरीज में भी दमदार प्रदर्शन किया है. जसवंत कहते हैं दिक्कते तो होती है, लेकिन जिदंगी में हार कुछ नहीं होती.
ये असाधारण खिलाड़ी दिव्यांगता को दे रहे मातः
यह तो पहली बानगी है कि किस तरह से राजस्थान के ये असाधारण खिलाड़ी दिव्यांगता को मात दे रहे हैं. मैनपुरा गांव में जन्मे सूरजभान मीना का जन्म से ही दृष्टिहीन है, लेकिन जिला, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर पैरा तैराकी में अपनी प्रतिभा का जलवा दिखाया है. सूरजभान की कहानी सूनकर ऐसा लगता है इस 16 वर्षीय बालक को ईश्वर ने रोशनी नहीं दी तैराकी में जीतने का ऐसा जूनुन दिया है कि जिला, राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर की तैराकी प्रतियोगिताओं में प्रथाम स्थान रहकर मेडल व पुरस्कार जीतकर एक मिशाल कायम की है. सूरजभान की प्रतिभा व लगन को देखते हुए साये के साथ रहने वाले उसके किसान पिता रामदास मीना ही उसके लिए तैराकी के कोच बन गए. और सूरजभान को तैराकी विभिन्न कलाओं से पारंगत किया. सूरजभान के पिता रामदास मीना ने बताया कि उनका पुत्र जन्म से दृष्टीहीन है इस बात का पता जब चला जब घुटने पर चलने के दौरान एक्टीविटिज से अहसास हुआ. सूरजभान ने अब तक राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 7 गोल्ड व 1 सिल्वर मेडल जीते हैं. सफलता की रोशनी से दुनिया में परचम लहरा रहे यह असाधारण सूरज नेत्रहीन विद्यालय, जयपुर में अध्ययन के साथ-साथ तैराकी की तैयारी भी करता है.
एथलेटिक्स ट्रेक पर हौसलों से उड़ानः
और इनसे मिलिए यह है जयपुर जिले की जमवारामगढ़ तहसीज के विक्रम मीणा. 2014 में हुई एक सड़क दुर्घटना ने इनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी. अब तक अपने मजबूत हाथों से देश की रक्षा करने का ख्वाब देखने वाले विक्रम की जिंदगी में अंधेरा सा छा गया. लगने लगा कि अब इनकी दुनिया थम सी गई, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मजबूरी को ही उन्होंने मजबूती बना लिया और चल दिए खेल के मैदान पर. पांच साल से एथलेटिक्स ट्रेक पर हौसलों से उड़ान भर रहे हैं. पांच साल पहले खेल का अपनाने वाले विक्रम अब एथलेटिक्स की विभिन्न स्पर्धाआों में कमाल दिखा रहे हैं. सबसे पहले राजस्थान यूनिवर्सिटी की तरफ से मैडल जीता था. अब तक नेशनल लेवल पर तीन गोल्ड व दो सिल्वर जीत चुके हैं. विक्रम का सपना 2026 के एशियन गेम्स में भारत के लिए गोल्ड जीतना है. विक्रम कहते हैं, हाथ नहीं है इसका मतलब यह नहीं है कि खुद का कमजोर समझे.
अरविंद कुमार सैनी की कहानीः
कोटा के अरविंद कुमार सैनी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. 2022 में रोड एक्सीडेंट में अपना बायां पैर ही गंवा दिया. ऐसा लगा कि दुनिया ही उजड़ गई. परिजनों का रो रो कर बुरा हाल था और हिम्मत जवाब देने लगी थी, लेकिन अरविंद ने हौंसला नहीं टूटने दिया. जब अस्पताल से छुट्टी मिली थी, तो फाइबल कर पैर लगाकर खड़े हो गए और अगले ही साल से अर्जुन से सटीक निशाने लगाने लगे. एक तीर को पीछे की ओर खींचकर ही मारा जा सकता है. इसलिए जब जीवन आपको कठिनाइयों के साथ पीछे खींच रहा है, तो इसका मतलब है कि यह आपको किसी महान चीज़ की ओर ले जाने वाला है. अरविंद अब तक नेशनल चैंपियनशिप के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्विट्जरलैंड में भी खेल चुके हैं.
दिव्यांगता का नहीं समझे कमजोरीः
देश के लिए पैरा ओलंपिक में रिकॉर्डधारी स्वर्ण विजेता देवेंद्र झाझड़िया कहते हैं. दिव्यांगता का कमजोरी नहीं समझे. क्योंकि दिव्यांग खिलाड़ियेां ने ही इस बारे देश के लिए पैरा ओलंपिक में 29 पदक जीते हैं. खुद देवेंद्र ने देश के लिए पैरा ओलंपिक में दो स्वर्ण पदक जीते हैं और खेल रत्न, पद्मश्री, पदम भूषण व अर्जुन अवार्ड सहित कई अहम पुरस्कार जीते हैं और सम्मान पाया है. वे कहते हैं कि आप दिव्यांगजन को मजबूती से देखे, मजबूर की दृष्टि से न देखे.
वो खिलाड़ी जिन्होंने देश का नाम किया रोशनः
न केवल देवेंद्र झाझड़ियां, बल्कि अवनी लेखरा सहित कई ऐसे दिव्यांग खिलाड़ी है, जिन्होंने न केवल राजस्थान का बल्कि देश का नाम रोशन किया है. अवनी ने लगातार दूसरी बार पैरालंपिक का गोल्ड मेडल हासिल किया है. यह कारनामा करने वाली अवनी देश की पहली महिला एथलीट बन गई हैं. अवनी का यहां तक का सफर बहुत संघर्ष भरा रहा है. 11 साल की उम्र में अवनी की कार एक्सीडेंट में रीढ़ की हड्डी टूट गई थी. जिसके बाद उन्हें व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ा. कमर के नीचे के हिस्से में लकवा मारने के कारण अवनि व्हीलचेयर पर निर्भर हैं. छोटी उम्र में व्हीलचेयर के साथ सफर शुरू करने वाली अवनी को उनके पिता प्रवीण लेखरा ने काफी मोटिवेट किया. आरएएस अफसर प्रवीण लेखरा ने कहा कि हम सहयोग कर सकते हैं, मेहनत तो बच्चे की ही होती है.
कठिनाइयों को चुनौतीः
विश्व दिव्यांग दिवस हमें एक महत्वपूर्ण संदेश देता है – हर व्यक्ति में अपार संभावनाएँ हैं, चाहे वह शारीरिक रूप से किसी भी स्थिति में हो. यह दिन उन लाखों दिव्यांग व्यक्तियों को सम्मानित करने का दिन है, जो जीवन की कठिनाइयों को चुनौती देकर समाज में अपनी विशेष पहचान बना रहे हैं. दिव्यांगता किसी की उम्मीदों को तोड़ नहीं सकती, बल्कि यह तो एक नई राह दिखाती है. दिव्यांग व्यक्तियों का संघर्ष केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक भी होता है. समाज की कई पूर्वधारणाओं और भेदभाव का सामना करते हुए, वे अपने जीवन को न सिर्फ चुनौती देते हैं, बल्कि अपनी कड़ी मेहनत से समाज के सामने एक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं. खेल हो, कला हो या किसी भी अन्य क्षेत्र में, दिव्यांग व्यक्ति हर कदम पर साबित करते हैं कि उनका इरादा सबसे मजबूत है.आज का यह दिन हमें यह याद दिलाता है कि हमें समाज में हर व्यक्ति के लिए समान अवसर और सम्मान देना चाहिए. दिव्यांगता को केवल शारीरिक स्थिति न मानकर, हमें मानसिक और आत्मविश्वास की ताकत से जोड़ना चाहिए. दिव्यांग व्यक्तियों की प्रेरणा हमें यह सिखाती है कि आत्मविश्वास और मेहनत से किसी भी मुश्किल को पार किया जा सकता है.