जैसलमेर : "जय जवान, जय किसान और जय इतिहास!" राजस्थान की तपती रेत में इतिहास की एक ऐसी परत उजागर हुई है, जिसने सिंधु घाटी सभ्यता को जैसलमेर के नक्शे पर दर्ज कर दिया है. जैसलमेर जिले के रामगढ़ इलाके में हड़प्पा सभ्यता से जुड़े करीब 4500 साल पुराने अवशेष मिले हैं. मिट्टी के बर्तन, चूड़ियां, टेराकोटा केक और यहां तक कि भट्टी के अवशेष ये सब कुछ संकेत दे रहे हैं उस सभ्यता के, जिसे अब तक पंजाब, सिंध और गुजरात तक सीमित माना गया था. लेकिन इस ऐतिहासिक खोज से जुड़ी एक और कहानी भी है. वो कहानी है स्थानीय खोजकर्ताओं की मेहनत की, जिनकी वर्षों की रिसर्च और जमीनी पड़ताल का क्रेडिट अब किसी और को दे दिया गया है.
"रेगिस्तान की रेत में दबा 4500 साल पुराना इतिहास"
जैसलमेर की रामगढ़ तहसील से 60 किलोमीटर दूर एक स्थान है ‘रातडिया री डेरी’. यहां की शांत और उजाड़ ज़मीन के नीचे दबी थी एक पूरी सभ्यता की गवाही. इतिहासकार प्रदीप कुमार गर्ग, शोधार्थी दिलीप कुमार सैनी, पार्थ जगाणी, चतरसिंह जाम और डॉ रविंद्र देवरा ने स्थानीय ग्रामीणों की मदद से यहां की पहली साइट को चिह्नित किया. वर्षों से चल रहे रिसर्च और फील्ड विज़िट के बाद जब उन्हें इस टीले की बनावट और मिट्टी की बनावट में फर्क महसूस हुआ, तब खुदाई शुरू की गई. जैसे-जैसे खुदाई आगे बढ़ी मिट्टी के टुकड़े, बर्तन, और चूड़ियों के अवशेष मिलने लगे. ये कोई आम बर्तन नहीं थे, इन पर हड़प्पा काल की विशिष्ट बनावट और लाल लेप था. यानी ये अवशेष कम से कम 4500 साल पुराने हैं. इन शोधकर्ताओं का मानना है कि यह इलाका कभी सिंधु नदी के पास बसा था, और यह साइट उस प्राचीन जल-प्रणाली का हिस्सा हो सकती है जो अब तक केवल पंजाब या सिंध से जुड़ी मानी जाती रही है.
रातडिया री डेरी की खुदाई में मिले अवशेषों की बात करें, तो यह सिर्फ बर्तन या मिट्टी के टुकड़े नहीं हैं. ये सभ्यता की जीवित सांसें हैं. यहां बड़ी संख्या में हड़प्पा सभ्यता के लाल लेप वाले बर्तन, घड़े, कटोरे और परफोरेटेड जार मिले हैं. इन जारों का उपयोग पानी छानने या भंडारण में होता था. यानी यह सिर्फ रिहायशी नहीं, बल्कि तकनीकी सोच से जुड़ी बस्ती थी. इसके साथ ही, चार्ट पत्थर पर बनी ब्लेड जिनकी उत्पत्ति पाकिस्तान के रोहड़ी इलाके से मानी जाती है. यह संकेत देती है कि उस काल में जैसलमेर व्यापार मार्ग पर भी था. मिट्टी और शंख से बनी चूड़ियां, गोल, त्रिकोण और इडली जैसी टेराकोटा केक यहां मिले हैं. लेकिन सबसे रोमांचक खोज है. भट्टी (किल्न). दक्षिणी ढलान पर मिली इस भट्टी की संरचना मोहनजोदड़ो और गुजरात के कानमेर जैसी है, जहां बीच में कॉलम संरचना है. इसका मतलब, यह सिर्फ रिहायशी बस्ती नहीं, एक औद्योगिक या शिल्प केंद्र भी रहा होगा.यह अवशेष जैसलमेर को हड़प्पा मानचित्र पर एक नया आयाम देते हैं.
इस नई खोज ने न केवल हड़प्पा के भौगोलिक विस्तार को बढ़ाया है, बल्कि सरस्वती नदी के मार्ग को लेकर वर्षों से चली आ रही बहस को भी नया आधार दे दिया है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इस बस्ती की बनावट और अवशेष इस बात की पुष्टि करते हैं कि कभी सिंधु या सरस्वती नदी की कोई शाखा जैसलमेर के इन इलाकों से होकर गुजरती थी. यह इलाका पानी की उपलब्धता और व्यापार मार्ग दोनों के लिए मुफीद था.सिन्धु घाटी सभ्यता का यह नया केंद्र, राजस्थान के भूगोल, पुरातत्व और इतिहास को एक साथ जोड़ता है. इतिहास के इस अनमोल खोज में सबसे दुखद पहलू यह है कि जिन लोगों ने इसे खोजा, उन्हें कोई श्रेय नहीं मिला. जब स्थानीय इतिहासकार और ग्रामीण इस स्थल को चिह्नित कर रहे थे, उन्होंने पूरे प्रलेखन और स्थल विवरण को सरकारी एजेंसियों तक भेजा. लेकिन महज दो दिन बाद, 29 जुलाई को आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक टीम पहुंचती है. और फिर यह सारा क्रेडिट अपने नाम कर लेती है. प्रदीप कुमार गर्ग और उनकी टीम की मेहनत को नज़रअंदाज़ कर दिया गया, जबकि उन्होंने कई वर्षों तक रिसर्च और फील्डवर्क किया था.उनका कहना है कि तीन और स्थल भी हैं, जिन पर काम जारी है, लेकिन किसी साजिश के तहत स्थानीय खोजकर्ताओं को इस प्रक्रिया से बाहर किया जा रहा है. क्या इतिहास लिखने वालों को ही मिटा दिया जाएगा?
इस ऐतिहासिक खोज के बाद जैसलमेर अब सिर्फ पर्यटन, रेगिस्तान या किले के लिए नहीं, बल्कि भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता के शोध का केंद्र भी बन सकता है.यदि इस स्थल पर व्यापक खुदाई, संरक्षण और इंटरनेशनल रिसर्च शुरू की जाए तो आने वाले वर्षों में जैसलमेर हड़प्पा पर्यटन का भी गढ़ बन सकता है.यह खोज यह भी दर्शाती है कि स्थानीय जन और उनके अनुभवों को सुनना कितना ज़रूरी है. ये खोजें सिर्फ बड़े संस्थानों की नहीं, बल्कि गांव के उस बुजुर्ग की भी हैं जिसने सबसे पहले उस टीले पर मिट्टी की बनावट को अलग महसूस किया था.यह अवसर है. राजस्थान सरकार, भारतीय पुरातत्व विभाग और शोध संस्थानों के लिए, कि वे मिलकर इस खोज को वैश्विक मंच तक ले जाएं.
4500 साल पुराने ये अवशेष सिर्फ इतिहास के पन्नों का हिस्सा नहीं हैं, ये हमारी पहचान की जड़ें हैं.रातडिया री डेरी की शांत मिट्टी, जो अब तक बस रेत समझी जाती थी, अब बोल रही है. एक बस्ती की, एक संस्कृति की, और एक गौरवशाली अतीत की कहानी.इन बर्तनों पर जमी धूल में उस समय की दिनचर्या बसती है.इन चूड़ियों में उस दौर की महिलाओं की शान थी, और इन भट्टियों की राख में उस समाज की मेहनत.जिस भूमि को अब तक सिर्फ रेगिस्तान माना गया. वो दरअसल एक नदी किनारे की बस्ती थी, जहां व्यापार भी था, कला भी थी, और एक संगठित जीवनशैली भी.ये खोज हमें बताती है कि जैसलमेर सिर्फ किले और रणभूमियों का नहीं,बल्कि सभ्यता का भी केंद्र रहा है, वो केंद्र, जो आज तक इतिहास की किताबों से गायब था.लेकिन इस खोज का सबसे बड़ा संदेश यही है, कि हर गांव, हर टीला, हर चुप मिट्टी में कोई कहानी छुपी है.उसे समझने के लिए जरूरी है. जमीनी नजरिया, स्थानीय जुड़ाव और शोध की ईमानदारी. अब वक्त है, कि हम अपने इतिहास को सिर्फ पढ़ें नहीं, उसे पहचानें, स्वीकारें और सहेजें.क्योंकि जब मिट्टी बोलती है, तो उसे सुनना सिर्फ इतिहासकार का काम नहीं -हर उस इंसान का फर्ज है, जो अपने वजूद से जुड़ा है.