चेन्नई: मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा है कि मंदिरों में अर्चक (पुजारी) की नियुक्ति में जाति आधारित वंशावली की कोई भूमिका नहीं होगी. उसने न्यासियों को मंदिर अगम की आवश्यकताओं के अनुसार ‘पूजा’ विधि की जानकारी रखने वाले किसी भी योग्य व्यक्ति को अर्चक नियुक्त करने की अनुमति दे दी है. अगम का अर्थ मंदिर में पूजा के जरिये किए जाने वाले पारंपरिक अनुष्ठानों से है.
उच्च न्यायालय ने हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (एचआरएंडसीई) विभाग द्वारा जारी एक विज्ञापन के खिलाफ मुथु सुब्रमण्यम गुरुक्कल की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान यह फैसला सुनाया. इस विज्ञापन में सलेम स्थित श्री सुगवनेश्वर स्वामी मंदिर में अर्चक/स्थानिकम के पदों के लिए आवेदन मांगे गए थे. याचिकाकर्ता की शिकायत थी कि विवादित विज्ञापन उसके और अन्य लोगों के वंशानुगत अधिकार का उल्लंघन करता है, जो प्राचीन काल से उत्तराधिकार की पंक्ति में रीति-रिवाजों और जरूरत के अनुसार अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं. याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि उक्त मंदिर एक अगामिक मंदिर है, इसलिए अर्चगर/स्थानिगर पद पर कोई भी नियुक्ति केवल रीति-रिवाजों और जरूरत के अनुसार ही की जा सकती है. न्यायमूर्ति एन आनंद वेंकटेश ने अपने फैसले में सेशम्मल और अन्य बनाम तमिलनाड राज्य मामले सहित उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का विस्तार से उल्लेख किया.
उन्होंने कहा कि शेषम्मल मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले से स्पष्ट है कि अर्चक की नियुक्ति एक धर्मनिरपेक्ष कार्य है और इसलिए वंशानुगत अधिकार का दावा नहीं जताया जा सकता है. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक अर्चक की नियुक्ति का श्रेय मंदिर के प्रबंधकों को दिया जाता है और वे ही अर्चक का चयन करते हैं. न्यायमूर्ति वेंकटेश ने कहा कि इसलिए अर्चक की नियुक्ति के मामले में उत्तराधिकार की पंक्ति में अगले क्रम के नियम के पालन पर जोर नहीं दिया जा सकता है और एक न्यासी केवल इस आधार पर नियुक्ति करने के लिए बाध्य नहीं है कि उम्मीदवार अर्चक पद के अंतिम धारक के उत्तराधिकार की पंक्ति में अगला है. सोर्स- भाषा