जयपुर: नवजात शिशुओं में होने बाले गंभीर संक्रमण 'सेप्सिस' के इलाज में एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होता जा रहा है. दुनिया के प्रतिष्ठित 'यूरोपियन जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स' में प्रकाशित एक वैश्विक समीक्षा अध्ययन में खुलासा हुआ है कि सेप्सिस के इलाज में एंटीबायोटिक दवाओं के बावजूद शिशु मृत्युदर 30% बढ़ गई है. यह अध्ययन जयपुर के जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. राम मटोरिया और यूएई के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ पंकज सोनी ने किया. उन्होंने 2005 से 2024 के बीच हुए 37 अध्ययनों के तहत 8,954 नवजातों के आंकड़ों का विश्लेषण किया. अध्ययन में सामने आया कि दुनियाभर में सेप्सिस के इलाज के बाद भी हर साल दो लाख से अधिक नवजातों को मृत्यु हो रही है. रिपोर्ट में बताया गया है कि उपचार के बावजूद नवजात मृत्यु दर सालाना बढ़ रही है. बढ़ते संक्रमण के प्रभाव के चलते, इलाज में रामबाण मानी जाने वाली ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक देने के बाद भी मृत्यु दर 10% बनी हुई है. नवजातों में संक्रमण के इस स्तर को देखते हुए विशेषज्ञों ने चेताया है कि यदि स्थिति बिगड़ती है, तो प्रतिरोध जीन अस्पतालों और समुदायों में फैल सकते हैं. नवजात शिशु इन प्रतिरोध जीन के वाहक बन सकते हैं, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है.
संक्रमण के कारण लगातार बदल रहा है इलाज का पैटर्न:
सेप्सिस के इलाज में दवाओं का असर नहीं होने के कारण इलाज का पैटर्न लगातार बदल रहा है. इसमें एमिनोग्लाइकोसाइड्स एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर 20% से 45% तक मृत्यु दर देखी गई. वहीं, सेफालोस्पोरिन्स वर्ग की लैक्टम एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर 15% से 35% तक मृत्यु दर रही. इलाज में सबसे एडवांस मानी आने वाली कार्बपिनेम-प्रतिरोधी ग्राम ऋणात्मक एंटीबायोटिक के उपयोग के बाद भी 10% नवजातों की संक्रमण से मृत्यु हुई है.इलाज के पैटर्न को लेकर डॉ. राम मटोरिया ने कहा कि एंटीमाइक्रोबियल प्रबंधन (स्टूअर्डशिप) कार्यक्रमों को मजबूत करना चाहिए और स्थानीय सूक्ष्मजीव निगरानी में निवेश करना चाहिए ताकि अनुभवजन्य उपचार प्रभावी और टिकाऊ बने रहें.
डॉ. राम मटोरिया ने बताया कि जांच में संक्रमण का कारण बनने वाले विशिष्ट जीवाणु का पता कम चल पा रहा है. डॉक्टरों को यह स्पष्ट जानकारी नहीं होती कि कौन-सा बेक्टीरिया या संक्रमण है, जिससे एंटीबायोटिक का चवन प्रभावित होता है और असर कम रहता है. इसके अलावा नवजातों में अंगों की अपरिपक्वता, स्वच्छता की कमी, मातृ एटीबायोटिक उपयोग और जन्म के समय उपनिवेशन भी संक्रमण की फैलाते हैं.
सेप्सिस से इम्यून सिस्टम होता है प्रभावित:
आमतौर पर बैक्टीरिया, वायरस, फंगस या परजीवियों के कारण होने वाले संक्रमण से सेप्सिस होता है. यह संक्रमण शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकता है. इसमे शरीर का म्यून सिस्टम कमजोर हो जाता और संक्रमण से लड़ने में असमर्थ होता है. इससे शरीर के केतकों और अंगों को अत्यधिक नुकसान पहुंचता है. समय पर इसका इलाज न किया जाए, तो यह जानलेवा हो सकता है.
संयोजन उपचार में जीवित रहने की संभावना अधिक:
अध्ययन में पाया गया कि बढ़ते संक्रमण के कारण नवजातों को गहन चिकित्सा इकाई (आईसीयू) में अधिक समय तक रखना पड़ रहा है, जिससे लागत और स्वास्थ्य प्रणाली पर बोझ बढ़ रहा है. वहीं, दवाओं का असर नहीं होने से इलाज के विकल्प सीमित हो रहे हैं. यही कारण है कि सेप्सिस के इलाज में मानकों के अनुसार एंटीबायोटिक देने के बावजूद मृत्युदर 10% से 30% तक दर्ज की गई. हालांकि यह भी पाया गया कि विभिन्न दवाओं के संयोजन (कॉम्बिनेशन रिपी) में एकल उपचार की तुलना में जीवित रहने की संभावना थोड़ी अधिक रही.
जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ राम मटोरिया ने बताया कि प्रतिरोध एक बढ़ता हुआ नवजातों में एंटीबायोटिक वैश्विक खतरा है. यह अध्ययन एक चेतावनी है कि यदि हमने अभी कार्रवाई नहीं की तो नवजात स्वास्थ्य पर गंभीर संकट आ सकता है. एंटीमाइक्रोबियल प्रबंधन कार्यक्रमों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए.
यूएई के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ पंकज सोनी ने बताया कि नवजात जीवन अत्यंत नाजुक होता है. हर घंटा कीमती होता है. नीति-निर्माताओं को तत्काल स्थानीय सूक्ष्मजीव निगरानी, रैपिड डायग्नोस्टिक तकनीकों में निवेश और संक्रमण-रोकथाम की नीतियों को सशक्त करना चाहिए, ताकि गंभीर संक्रमण से मृत्युदर को कम किया जा सके.