अरावली कोई पत्थर भर नहीं, वक़्त की साँसों में रची कहानी, मरुस्थल के आगे खड़ी दीवार है

अरावली कोई पत्थर भर नहीं, वक़्त की साँसों में रची कहानी, मरुस्थल के आगे खड़ी दीवार है

जयपुर: “अरावली कोई पत्थर भर नहीं, वक़्त की साँसों में रची कहानी है”-ये पंक्तियाँ आज अरावली पर्वतमाला की सच्चाई को बख़ूबी बयान करती हैं. भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक अरावली न केवल भूगोल की धरोहर है, बल्कि पर्यावरण संतुलन की मज़बूत दीवार भी है. लेकिन आज यही दीवार टूटने के कगार पर खड़ी है.अरावली आज भी खड़ी है-मरुस्थल के आगे एक दीवार बनकर. सवाल सिर्फ़ इतना है कि क्या हम इस दीवार को बचा पाएंगे, या इसे इतिहास की एक और खोती हुई कहानी बनने देंगे. IAS टीकम चंद बोहरा "कवि अनजाना ने अपने शब्दों में अरावली की कहानी बयां की...

अरावली की आह:
अरावली कोई पत्थर भर नहीं,
वक़्त की साँसों में रची कहानी है,
मरुस्थल के आगे खड़ी दीवार है,
धरती की पीठ पर खिंची निशानी है.

करोड़ों वर्षों की तपती साधना है,
हर दरार में जीवन बोया है इसने,
नदियों को राह दी, वन को छाया,
मानव को आश्रय दिया है इसने.

पर आज बेरहमी से इसके सीने में,
लोह-लालच के पंजे उतर आए हैं,
विकास के नाम पर विस्फोटों से,
भविष्य के स्वप्न कई बिखराए हैं.

टूटते पत्थर नहीं हैं बस यहाँ,
टूट रही है हमारी संवेदना,
हर धमाके संग सूखता है सोता,
मलबे के ढेर में दब गयी है चेतना.

जहाँ से सीखा था हमने जीना,
उसी को हम अब मिटा रहे हैं,
जिसने रेगिस्तान रोका सदियों,
उसी को हम अब कटा रहे हैं.

नियम बस काग़ज़ पर जिंदा हैं,
मगर धरती पर पहाड़ मरते हैं,
लोभ और दौलत की अंधी दौड़ में,
हम दिखावटी विलाप करते हैं.

अरावली एक महाकाव्य है,
वन इसके नायक, नदियाँ इसका गान हैं,
पर अब यह शोकगीत बन गई है,
जहाँ पर खलनायक लोभी इंसान है.

हर चिड़िया का उजड़ा घोंसला,
ज़िंदा ज़मीरों से सवाल पूछता है,
हर सूखा सोता, हर उजड़ा वन,
क्रूर इंसानी चेहरा देखता है.

यह केवल पर्यावरण ही नहीं,
हमारी संस्कृति का भी विलाप है,
लोककथाएँ, गीत, आस्थाएँ,
इसके साथ लुप्त होती चुपचाप हैं.

क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
सिर्फ़ तस्वीरों में पहाड़ देखेंगी?
क्या किताबों में साँस लेगी वह,
क्या हवा में ख़ुशबू महकेगी?

अब भी वक़्त की दस्तक है,
अब भी बच सकती है यह दीवार,
अरावली को बचाने का मतलब,
बचाना है अपना ही संसार.

प्रकृति से संवाद करना सीखें,
विकास में हम विवेक भरें,
सिर्फ़ क़ानून नहीं, चेतना भी जागे,
जख़्म भरने का काम हरेक करें.

क्योंकि जब जड़ें कट जाती हैं,
तो पेड़ कहाँ फिर जी पाता है?
जब पर्वत ही मर जाते हैं,
तो मनुष्य भी कहाँ बच पाता है?

अरावली का यूँ कट जाना,
हमें कटघरे में ला रहा है,
सवाल ये नहीं कि कितना निकाला,
सवाल ये है- क्या खो रहा है?

अगर अब भी हम नहीं चेते तो,
कटेंगी साँसें, मिटेंगी स्मृतियाँ,
पत्थरों की नहीं, पीढ़ियों की,
क़िस्मत की चढ़ेंगी बलियाँ.

बेबस अरावली पूछ रही है, 
बताओ कौन मेरा भक्षक है?
कर रही है ये सवाल सबसे, 
बताओ कौन मेरा रक्षक है? 
©️टीकम ‘अनजाना’